संदर्भ पंचायती राज संस्थान (Panchayati Raj Institution- PRI) भारत में ग्रामीण स्थानीय स्वशासन (Rural Local Self-government) की एक प्रणाली है। स्थानीय स्वशासन का अर्थ है स्थानीय लोगों द्वारा निर्वाचित निकायों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन। ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना करने के लिये 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थान को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई और उन्हें देश में ग्रामीण विकास का कार्य सौंपा गया। अपने वर्तमान स्वरूप और संरचना में पंचायती राज संस्थान ने 27 वर्ष पूरे कर लिये हैं। लेकिन विकेंद्रीकरण को आगे बढ़ाने और ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
- ब्रिटिश काल: ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ग्राम पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त हो गई और वे कमज़ोर हो गए।
- वर्ष 1870 में भारत में प्रतिनिधि स्थानीय संस्थाओं का उद्भव हुआ।
- वर्ष 1870 के प्रसिद्ध मेयो प्रस्ताव (Mayo’s resolution) ने स्थानीय संस्थाओं की शक्तियों और उत्तरदायित्वों में वृद्धि कर उनके विकास को गति दी।
- वर्ष 1870 में ही शहरी नगरपालिकाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया।
- वर्ष 1857 के विद्रोह ने शाही वित्त पर भारी दबाव बना दिया था और स्थानीय सेवा को स्थानीय कराधान से वित्तपोषित करना आवश्यक माना गया। इस प्रकार यह राजकोषीय मज़बूरी थी कि विकेंद्रीकरण पर लॉर्ड मेयो के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया।
- मेयो द्वारा उठाए गए कदमों का अनुसरण करते हुए लॉर्ड रिपन ने वर्ष 1882 में इन स्थानीय संस्थाओं को उनका अत्यंत आवश्यक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान किया।
- सभी बोर्डों (जो उस समय अस्तित्व में थे) में निर्वाचित गैर-अधिकारियों के दो-तिहाई बहुमत को अनिवार्य कर दिया गया और इन निकायों के अध्यक्ष को भी निर्वाचित गैर-अधिकारियों में से ही चुना जाना था।
- इसे भारत में स्थानीय स्वशासन का मैग्ना कार्टा माना जाता है।
- वर्ष 1907 में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को सी.ई.एच. होबहाउस की अध्यक्षता में ‘केंद्रीकरण पर रॉयल कमीशन’ (Royal Commission on Centralisation) के गठन से अत्यंत बल मिला।
- इस कमीशन/आयोग ने ग्राम स्तर पर पंचायतों के महत्त्व को चिह्नित किया।
- इसी पृष्ठभूमि में वर्ष 1919 के ‘मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार’ ने स्थानीय सरकार के विषय को प्रांतों के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया।
- इस सुधार में यह अनुशंसा भी की गई कि जहाँ तक संभव हो स्थानीय निकायों के पास एक पूर्ण नियंत्रण की क्षमता होनी चाहिये और बाह्य नियंत्रण से उन्हें संभवतः पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिये।
- इन पंचायतों के दायरे में ग्रामों की सीमित संख्या ही थी और इनके कार्य भी सीमित थे; संगठनात्मक और राजकोषीय बाधाओं के कारण ये ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन की लोकतांत्रिक और जीवंत संस्थाओं के रूप में परिणत न हो सकीं।
- फिर भी वर्ष 1925 तक आठ प्रांतों ने पंचायत अधिनियमों को पारित कर लिया था और वर्ष 1926 तक छह देशी रियासतों ने भी पंचायत कानून पारित कर लिये थे। स्थानीय निकायों को अधिक शक्तियाँ दी गईं और करारोपण के अधिकारों को कम कर दिया गया। लेकिन इनसे स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
- लेकिन संविधान में पंचायतों के इस समावेशन को तत्कालीन नीति-निर्माताओं की सर्वसम्मति प्राप्त नहीं थी और इसका सबसे प्रबल विरोध स्वयं संविधान निर्माता बी.आर. अंबेडकर ने किया था।
- ग्राम पंचायत के समर्थकों और विरोधियों के बीच अत्यधिक विमर्श के बाद ही अंततः पंचायतों को संविधान में स्थान मिला और इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में शामिल किया गया।
- चूँकि नीति निदेशक सिद्धांत बाध्यकारी सिद्धांत नहीं हैं, परिणामस्वरूप पूरे देश में इन निकायों के लिये सार्वभौमिक या एकसमान संरचना का अभाव रहा।
- स्वतंत्रता के बाद एक विकास पहल के रूप में भारत ने 2 अक्तूबर, 1952 को गांधी जयंती की पूर्वसंध्या पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Programmes- CDP) को लागू किया जिसकी वृहत प्रेरणा अमेरीकी विशेषज्ञ अल्बर्ट मेयर द्वारा शुरू की गई इटावा परियोजना (Etawah Project) से प्राप्त हुई थी।
- स्वातंत्र्योत्तर काल (स्वतंत्रता के बाद की अवधि): संविधान के अनुच्छेद 40 में पंचायतों का उल्लेख किया गया और अनुच्छेद 246 के माध्यम से स्थानीय स्वशासन से संबंधित किसी भी विषय के संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानमंडल को सौंपा गया।
- लेकिन संविधान में पंचायतों के इस समावेशन को तत्कालीन नीति-निर्माताओं की सर्वसम्मति प्राप्त नहीं थी और इसका सबसे प्रबल विरोध स्वयं संविधान निर्माता बी.आर. अंबेडकर ने किया था।
- ग्राम पंचायत के समर्थकों और विरोधियों के बीच अत्यधिक विमर्श के बाद ही अंततः पंचायतों को संविधान में स्थान मिला और इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में शामिल किया गया।
- चूँकि नीति निदेशक सिद्धांत बाध्यकारी सिद्धांत नहीं हैं, परिणामस्वरूप पूरे देश में इन निकायों के लिये सार्वभौमिक या एकसमान संरचना का अभाव रहा।
- स्वतंत्रता के बाद एक विकास पहल के रूप में भारत ने 2 अक्तूबर, 1952 को गांधी जयंती की पूर्वसंध्या पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Programmes- CDP) को लागू किया जिसकी वृहत प्रेरणा अमेरीकी विशेषज्ञ अल्बर्ट मेयर द्वारा शुरू की गई इटावा परियोजना (Etawah Project) से प्राप्त हुई थी।
- इसमें ग्रामीण विकास की लगभग सभी गतिविधियों को शामिल किया गया जिन्हें लोगों की भागीदारी के साथ ग्राम पंचायतों की सहायता से लागू किया जाना था।
- वर्ष 1953 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के सहयोग के लिये राष्ट्रीय विस्तार सेवा (National Extension Service)की भी शुरुआत की गई। लेकिन यह कार्यक्रम भी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभा सका।
- CDP की विफलता के कई कारण थे, जैसे नौकरशाही की बाधाएँ व अत्यधिक राजनीति, लोगों की भागीदारी में कमी, प्रशिक्षित एवं योग्य कर्मचारियों की कमी और विशेष रूप से CDP को लागू करने में ग्राम पंचायतों सहित स्थानीय निकायों की रुचि का अभाव।
- वर्ष 1957 में राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council) नेसामुदायिक विकास कार्यक्रम के कार्यकरण पर विचार करने हेतु बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।
- समिति ने पाया कि CDP की विफलता का प्रमुख कारण लोगों की भागीदारी में कमी थी।
- समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का सुझाव दिया-
1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत
2. प्रखंड (ब्लॉक) स्तर पर पंचायत समिति
3. ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद
- लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की यह योजना सर्वप्रथम 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में शुरू की गई।
- आंध्र प्रदेश में यह योजना 1 नवंबर, 1959 को शुरू की गई। इस संबंध में आवश्यक विधान भी पारित कर लिये गए और असम, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा एवं पंजाब में भी इसे लागू किया गया।
- वर्ष 1977 में अशोक मेहता समिति की नियुक्ति ने पंचायत राज की अवधारणाओं और रीतियों में नए दृष्टिकोण का सूत्रपात किया।
- समिति ने द्विस्तरीय पंचायत राज संरचना की अनुशंसा की जिसमें ज़िला परिषद और मंडल पंचायत शामिल थे।
- योजना विशेषज्ञता के उपयोग और प्रशासनिक सहायता की सुनिश्चितता के लिये राज्य स्तर से नीचे ज़िले को विकेंद्रीकरण के प्रथम बिंदु के रूप में रखने की अनुशंसा की गई थी।
- समिति की अनुशंसा के आधार पर कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने इस व्यवस्था को प्रभावी रूप से लागू किया।
- कालांतर में पंचायतों के पुनरुद्धार और इन्हें नई ऊर्जा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने विभिन्न समितियों की नियुक्ति की। इनमें से कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण समितियाँ थीं-
- हनुमंत राव समिति (1983)
- जी.वी.के. राव समिति (1985)
- एल.एम. सिंघवी समिति (1986)
- केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग (1988)
- पी.के. थुंगन समिति (1989)
- हरलाल सिंह खर्रा समिति (1990)
- जी.वी.के राव समिति (1985) ने ज़िले को योजना की बुनियादी इकाई बनाने और नियमित चुनाव आयोजित कराने की सिफारिश की जबकि एल.एम. सिंघवी ने पंचायतों को सशक्त करने के लिये उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान करने तथा अधिक वित्तीय संसाधन सौंपने की सिफारिश की।
- संशोधन का चरण 64वें संशोधन विधेयक (1989) के साथ शुरू हुआ जिसे राजीव गांधी सरकार द्वारा पंचायत राज संस्थाओं को सशक्त बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया था लेकिन यह विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं हो सका।
- संविधान (74वाँ संशोधन) विधेयक (पंचायत राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं के लिये एक संयुक्त विधेयक) वर्ष 1990 में प्रस्तुत किया गया था लेकिन इसे कभी सदन में चर्चा के लिये नहीं लाया गया।
- प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान सितंबर 1991 में 72वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में एक व्यापक संशोधन प्रस्तुत किया गया।
- 73वें और 74वें संविधान संशोधन को दिसंबर, 1992 में संसद द्वारा पारित कर दिया गया। इन संशोधनों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव डाली गई।
- 24 अप्रैल, 1993 को संविधान (73वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 और 1 जून, 1993 को संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 के रूप में ये कानून प्रवर्तित हुए।
पंचायती राज संस्थाओं का मूल्यांकन
- पंचायती राज संस्थाओं ने 27 वर्षों की अपनी यात्रा में उल्लेखनीय सफलता भी पाई है और भारी विफलता भी झेली है जिनका मूल्यांकन उनके द्वारा तय किये गए लक्ष्यों के आधार पर किया जाता है।
- जहाँ पंचायती राज संस्थाएँ ज़मीनी स्तर पर सरकार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के एक और स्तर के निर्माण में सफल रही हैं वहीं बेहतर प्रशासन प्रदान करने के मामले में वे विफल रही हैं।
- देश में लगभग 250,000 पंचायती राज संस्थाएँ एवं शहरी स्थानीय निकाय और तीन मिलियन से अधिक निर्वाचित स्थानीय स्वशासन प्रतिनिधि मौजूद हैं।
- 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा यह अनिवार्य किया गया है कि स्थानीय निकायों के कुल सीटों में से कम-से-कम एक तिहाई तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित हों। भारत में निर्वाचित पदों पर आसीन महिलाओं की संख्या विश्व में सर्वाधिक है (1.4 मिलियन)। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिये भी स्थानों और सरपंच/प्रधान के पदों का आरक्षण किया गया है।
- पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करते हुए किये गए अध्ययन से पता चला है कि स्थानीय सरकारों में महिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व से महिलाओं के आगे आने और अपराधों की रिपोर्ट दर्ज कराने की संभावनाओं में वृद्धि हुई है।
- महिला सरपंचों वाले ज़िलों में विशेष रूप से पेयजल, सार्वजनिक सुविधाओं आदि में वृहत निवेश किया गया है।
- इसके अलावा, राज्यों ने विभिन्न शक्ति हस्तांतरण प्रावधानों को वैधानिक सुरक्षा प्रदान की है जिन्होंने स्थानीय सरकारों को व्यापक रूप से सशक्त बनाया है।
- उत्तरोत्तर केंद्रीय वित्त आयोगों ने स्थानीय निकायों के लिये धन आवंटन में उल्लेखनीय वृद्धि की है इसके अलावा प्रदत्त अनुदानों में भी वृद्धि की गई है।
- 15वाँ वित्त आयोग स्थानीय सरकारों के लिये आवंटन में और अधिक वृद्धि पर विचार कर रहा है ताकि इन्हें किये जाने वाले आवंटन को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाया जा सके।
- 24 अप्रैल, 2022 को 12वांँ राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया गया।
- इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने ‘गांँवों का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में तात्कालिक प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण (Survey of Villages and Mapping with Improvised Technology in Village Areas-SWAMITVA) या स्वामित्व योजना के तहत ई-संपत्ति कार्ड के वितरण की शुरुआत की।
संबंधित मुद्दे
- पर्याप्त धन की कमी पंचायतों के लिये समस्या का एक विषय है। पंचायतों के क्षेत्राधिकार में वृद्धि किये की आवश्यकता है ताकि वे स्वयं का धन जुटाने में सक्षम हो सकें।
- पंचायतों के कार्यकलाप में क्षेत्रीय सांसदों और विधायकों के हस्तक्षेप ने ही उनके कार्य निष्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है।
- 73वें संविधान संशोधन ने केवल स्थानीय स्वशासी निकायों के गठन को अनिवार्य बनाया जबकि उनकी शक्तियों, कार्यो व वित्तपोषण का उत्तरदायित्व राज्य विधानमंडलों को सौंप दिया दिया, जिसके परिणामस्वरूप पंचायती राज संस्थाओं की विफलता की स्थिति बनी है।
- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और जल के प्रावधान जैसे विभिन्न शासन कार्यों के हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं बनाया गया। इसके बजाय संशोधन ने उन कार्यों को सूचीबद्ध किया जो हस्तांतरित किये जा सकते थे और कार्यों के हस्तांतरण के उत्तरदायित्व को राज्य विधानमंडल पर छोड़ दिया।
- पिछले 27 वर्षों में प्राधिकार और कार्यों का हस्तांतरण बहुत कम हुआ है।
- चूँकि इन कार्यों का कभी भी हस्तांतरण नहीं किया गया इसलिये इन कार्यों के लिये राज्य के कार्यकारी प्राधिकारों की संख्या में वृद्धि होती गई। इसका सबसे सामान्य उदाहरण राज्य जल बोर्डों की खराब स्थिति हैं।
- संशोधन की सबसे प्रमुख विफलता पंचायत राज संस्थाओं के लिये वित्त की कमी पर विचार नहीं करना है। स्थानीय सरकारें या तो स्थानीय करों के माध्यम से अपना राजस्व बढ़ा सकती हैं अथवा वे अंतर-सरकारी हस्तांतरण पर निर्भर हैं।
- उपरोक्त के अलावा पंचायती राज संस्थाओं के दायरे में आने वाले विषयों पर कर लगाने की शक्ति को भी विशेष रूप से राज्य विधायिका द्वारा अधिकृत किया जाता है। 73वें संविधान संशोधन ने करारोपण की शक्ति के निर्धारण का उत्तरदायित्त्व राज्य विधानमंडल को सौंप दिया और अधिकांश राज्यों ने इस शक्ति के हस्तांतरण में कोई रुचि नहीं दिखाई।
- राजस्व सृजन का एक दूसरा माध्यम अंतर-सरकारी हस्तांतरण है, जहाँ राज्य सरकारें अपने राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत पंचायती राज संस्थाओं को सौंपती हैं। संवैधानिक संशोधन ने राज्य और स्थानीय सरकारों के बीच राजस्व की साझेदारी की सिफारिश करने के लिये राज्य वित्त आयोग का उपबंध किया। लेकिन ये केवल सिफारिशें होती हैं और राज्य सरकारें इन्हें मानने के लिये बाध्य नहीं हैं।
- यद्यपि वित्त आयोगों ने प्रत्येक स्तर पर धन के अधिकाधिक हस्तांतरण का समर्थन किया है, लेकिन राज्यों द्वाराधन के हस्तांतरण के संदर्भ में बहुत कम कार्रवाई की गई है।
- पंचायती राज्य संस्थाएँ उन परियोजनाओं को अपनाने के प्रति अनिच्छुक होती हैं जिनमें किसी भी सार्थक वित्तीय परिव्यय की आवश्यकता होती है और प्रायः अत्यंत बुनियादी स्थानीय प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में भी असमर्थ होती हैं।
- पंचायती राज्य संस्थाएँ संरचनात्मक कमियों से भी ग्रस्त हैं; उनके पास सचिव स्तर का समर्थन और निचले स्तर के तकनीकी ज्ञान का अभाव है जो उन्हें उर्ध्वगामी योजना के समूहन से बाधित करता है।
- पंचायती राज संस्थाओं में तदर्थवाद (Adhocism) की उपस्थिति है, अर्थात् ग्राम सभा और ग्राम समितियों की बैठक में एजेंडे की स्पष्ट व्यवस्था की कमी होती है और कोई उपयुक्त संरचना मौजूद नहीं है।
- हालाँकि महिलाओं और SC/ST समुदाय को 73वें संशोधन द्वारा अनिवार्य आरक्षण के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं में प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ है लेकिन महिलाओं और SC/ST प्रतिनिधियों के मामले में क्रमशः पंच-पति और प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व की उपस्थिति जैसी समस्याएँ भी देखने को मिलती है।
- पंचायती राज संस्थाओं की संवैधानिक व्यवस्था के 27 वर्ष बाद भी जवाबदेही व्यवस्था अत्यंत कमज़ोर बनी हुई है।
- कार्यों तथा निधियों के विभाजन में अस्पष्टता की समस्या ने शक्तियों को राज्यों के पास संकेंद्रित रखा है और इस प्रकार ज़मीनी स्तर के मुद्दों के प्रति अधिक जागरूक एवं संवेदनशील निर्वाचित प्रतिनिधियों को नियंत्रण प्राप्त करने से बाधित कर रखा है।
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